April 16, 2024

हस्तकरघा बुनाई को हिन्दू रूढ़िवादी एजेंडे का हिस्सा बताना…शर्मनाक

New Delhi/Alive News : न्यूयॉर्क टाइम्स में असगर क़ादरी ने 12 नवंबर को साड़ी को लेकर एक लेख लिखा था. इस लेख को लेकर काफ़ी बहस और विवाद की स्थिति बनी.

न्यूयॉर्क टाइम्स के इस लेख में लिखा गया है कि वर्तमान भारतीय फैशन हास्यास्पद है. दिलचस्प है कि वर्तमान बीजेपी सरकार योग, आयुर्वेदिक दवाई और अन्य पारंपरिक भारतीय ज्ञान को बढ़ावा दे रही है, लेकिन भारतीय पहनावों के साथ ऐसा नहीं कर रही है. यहां तक कि सरकार शाकाहार को भी प्रोत्साहित कर रही है.

भारत के सभी राजनीतिक दलों के नेता हमेशा से भारतीय लिबास को प्राथमिकता देते रहे हैं. मोदी भी विदेश दौरे पर ही पश्चिमी लिबास में नज़र आते हैं. असगर अली ने अपने लेख में कहा है कि भारतीय फैशन इंडस्ट्री पर भारतीय पहनावों को बढ़ावा देने का दबाव है और पश्चिमी शैली के लिबास की उपेक्षा की जा रही है. उन्होंने लिखा है कि यह भारतीय जनता पार्टी की राजनीति का हिस्सा है जो एक अरब 30 करोड़ की आबादी वाले बहुसांस्कृतिक देश को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती है.

यह बिल्कुल बकवास है. पारंपरिक भारतीय पहनावे- साड़ी, सलवार कमीज़, धोती, लहंगा ओढ़नी, लुंगी, चादर, शेरवानी और नेहरू जैकेट का हिन्दुत्व से कोई लेना-देना नहीं है. भारत के अलग-अलग पहनावे से उसकी बहुसांस्कृतिक प्रकृति की ही झलक मिलती है.

यहां की विविधता जगज़ाहिर है. भारतीय पहनावे भी इन्हीं विविधताओं के परिचायक हैं. ये पहनावे हमारे जलवायु में विकसित हुए हैं. इन पहनाओं को आकार ग्रहण करने में एक लंबा वक़्त लगा है. संसार भर में पहनावे और जीवनशैली का विकास वहां के जलवायु के आधार पर ही हुआ है.

सिकंदर, मध्य एशिया के उपद्रवियों और यहां तक कि अंग्रेज़ों का हमारे पहनावे और जीवन शैली को आकार में देने में योगदान रहा है. अंगरखा, अनारकली और अचकन कट्स में इन्हीं की भूमिका रही है.

दिलचस्प है कि चुनाव के दौरान भारत के अलग-अलग इलाक़ों में अलग-अलग टोपियां पहनी जाती हैं. इस मामले में तो प्रधानमंत्री मोदी नेहरू का अनुकरण करते दिख रहे हैं.

कपड़ों के मामले में पश्चिमी कंपनियों पर कोई दबाव नहीं बनाया गया. पश्चिमी ब्रैंड को भारतीय बाज़ार में आने के लिए प्रोत्साहित किया गया. भारत में हर जगह जींस, टी-शर्ट्स और पश्चिमी कपड़े दिखते हैं.

मैं अक्सर साड़ी में रूढ़िवाद पाती हूं. वर्तमान सरकार द्वारा भारत में पारंपरिक कपड़ों को प्रोत्साहित करने का मतलब भारतीय हथकरघा का बाज़ार अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ले जाने से है.

मंत्रालय बनारस समेत कई हथकरघा केंद्रों में डिजायनरों को भेज रहा है. सरकार ऐसा भारतीयों को साड़ी पहनाने के लिए नहीं कर रही है बल्कि पश्चिमी कपड़ों को अंतरराष्ट्रीय उपभोक्ताओं के लिए डिजाइन कराने की कोशिश कर रही है. इसे फैशन शो और व्यापार मेले के ज़रिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. सरकार ऐसा दुनिया भर में कर रही है.

कपड़ा मंत्री के रूप में स्मृति इरानी भारतीय हथकरघों में चमक लौटाने की कोशिश कर रही हैं. हैंडलूम इंडस्ट्री में आई गिरावट को थामने के लिए कई स्तरों पर कोशिश की जा रही है. ऐसा हैंडलूम मार्क और हैंडलूम डे को माध्यम बनाकर भी किया जा रहा है. यह कोई पुरातनपंथी या प्रतिक्रियावादी क़दम नहीं है.

यहां तक कि इस सेक्टर में ऐसे क़दमों की कमी महसूस की जाती है. जीएसटी और नोटबंदी से इस उद्योग को झटका ही लगा है. आज़ादी के बाद से सभी सरकारों ने हस्तकरघा बुनाई का समर्थन किया है. यह किसी हिन्दुवादी एजेंडे का हिस्सा नहीं है और न ही राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लिए.

इसकी सीधी वजह यह है कि खेती के बाद हैंडलूम रोज़गार देने वाला एक बड़ा सेक्टर है. आज की तारीख़ में मिल और पावरलूम के कारण हथकरघा ख़तरे में है. हर दशक में 15 फ़ीसदी लोग बेहतर वेतन के लिए इस पेशे को छोड़ रहे हैं.

सबसे दिलचस्प यह है कि हैंडलूम से हिन्दुत्व का भला नहीं हो रहा है बल्कि इसमें बड़ी संख्या में मुसलमान लगे हैं. प्रधानमंत्री मोदी के लोकसभा क्षेत्र बनारस में भी इस पेश में सबसे ज़्यादा मुसलमान ही हैं.

पूर्वोत्तर के राज्य और मध्य भारत में इस पेशे में आदिवासी हैं. हैंडलूम पहनना या इसके प्रोत्साहन को हिन्दू रूढ़िवादी एजेंडे से जोड़ना बिल्कुल बेहूदा तर्क है. एक मुस्लिम महिला के तौर पर वयस्क जीवन में हैंडलूम साड़ी पहनना क्या छुपे हिन्दुत्व को दर्शाता है?

एक सरकार का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अतीत तक पहुंचना उसका राजनीति प्रभाव है न कि यह राष्ट्रीय लिबास को आगे बढ़ाना है. इसकी दो वजहें हो सकती हैं. पारंपरिक भारतीय पहनावा शैली काफ़ी विविध और उदार है.

यह हमारी खाद्य सामग्री की तरह है जिसे एक नहीं किया जा सकता. भारतीय पहनावा क्षेत्रीय है न कि संपूर्ण-भारत के लिए है. मिसाल के तौर पर साड़ी पहनने के 60 तरीक़े हैं.

दूसरी वजह भी बिल्कुल सरल है कि सरकार को ऐसा करने की कोई ज़रूरत नहीं है. भारतीय पाश्चात्य कपड़े ख़ूब पहनते हैं. ख़ासकर युवा तो इसे जमकर पहनते हैं. हम ख़ुशकिस्मत हैं कि हमें चुनने की स्वतंत्रता है. क़ादरी हमारे पहनावे को एक खांचे में बांधने की कोशिश कर रहे हैं जो कि फ़िट नहीं बैठता है.