March 29, 2024

अस्पताल की लूट से हैं परेशान ? तो जान ले अपने अधिकार

New Delhi/Alive News : दिल्ली के शालीमार बाग के मैक्स सुपरस्पेशलिटी अस्पताल में नवजात जुड़वाँ बच्चों को मृत घोषित कर दिया गया मगर उनमें से एक बच्चा जीवित था. अब उस बच्चे की भी मौत हो गई है. परिवार अस्पताल पर लापरवाही का आरोप लगा रहा है.

दूसरा मामला गुरुग्राम का है. एक प्राइवेट अस्पताल में सात साल की एक बच्ची का इलाज चल रहा था. बच्ची को डेंगू हुआ था. दो हफ्ते के इलाज के बाद बच्ची की मौत हो गई थी. इसके बाद अस्पताल ने परिवार को 16 लाख का बिल थमा दिया था. इस पर परिवार का कहना था कि दो हफ्ते के इलाज के दौरान अस्पताल ने 600 सिरिंज और 1600 जोड़े से भी ज़्यादा दस्तानों के लिए बिल भरने को कहा. लेकिन क्या वाकई अस्पताल में अपने परिजन को भर्ती करके आम आदमी लाचार हो जाता है? या फिर उसके भी कोई अधिकार हैं ? अस्पताल में आपका परिजन भर्ती हो तो कुछ ऐसे क़ानून है जिनकी जानकारी आपको होनी चाहिए वरना आपको अस्पताल में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है.

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986
कंज्यूमर राइट एक्टिविस्ट और लेखिका पुष्पा गिरिमाजी के मुताबिक स्वास्थ्य सेवा के उपभोक्ता होने के नाते हम देश के उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (1986) क़ानून के तहत अपने अधिकार की लड़ाई लड़ सकते हैं. हालांकि हमारे देश में पेशेंट राइट नाम का कोई कानून नहीं है. लेकिन उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम भी हमारे अधिकारों की सुरक्षा करने के लिए काफी है.

सूचना का अधिकार कानून 2005
पुष्पा गिरिमाजी के मुताबिक मरीज़ के परिजन के पास दूसरा सबसे बड़ा हथियार होता है सूचना का अधिकार. इस कानून के तहत सबसे पहले हमे डॉक्टर और अस्पताल से ये जानने का अधिकार होता है कि मरीज़ पर किस तरह का उपचार चल रहा है, अस्पताल की जांच में क्या निकल कर सामने आया है, हर टेस्ट की क्या कीमत है, मरीज़ को जो दवाइयां दी जा रही है उनका असर कब और कितना हो रहा है.

अगर मरीज़ ये सब पूछने की स्थिति में नहीं है, तो अस्पताल में साथ रह रहे परिजन इसकी जानकारी अस्पताल प्रशासन से मांग सकते है, और इस जानकारी को हासिल करना हम सबका अधिकार है. इतना ही नहीं, आपको अधिकार है कि आप डॉक्टर की योग्यता और डिग्रियों के बारे में जानकारी हासिल कर पाएं. ये जानकारी आप अस्पताल प्रशासन से मांग सकते हैं.

क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट 2010
इस अधिनियम के तहत हर अस्पताल, क्लिनिक या फिर नर्सिंग होम को रजिस्टर करना अनिवार्य होता है. साथ ही एक गाइडलाइन के तहत हर बीमारी के इलाज और टेस्ट की प्रक्रिया निर्धारित है और ऐसा न करने पर इस एक्ट में जुर्माने का प्रावधान भी है. हालांकि पुष्पा गिरिमाजी के मुताबिक सभी राज्यों ने अभी तक इसे लागू नहीं किया है.

एक उपभोक्ता के नाते हमे ये पता करना चाहिए कि हमारे राज्य में ये कानून लागू है या नहीं. वरना जिस राज्य में ये लागू है वहां से पता करना चाहिए आपके मरीज को जो बीमारी डॉक्टर बता रहें है उसके इलाज की प्रक्रिया और टेस्ट क्या होने चाहिए.

एमआरटीपी एक्ट 1969
इस कानून के तहत दवा विक्रेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए. इसके अनेक प्रावधानों के तहत आपको कोई भी अस्पताल वहीं से दवाइयां खरीदने के लिए बाध्य नहीं कर सकता.

प्रोफेशनल कंडक्ट एंड एथिक्स एक्ट 2002

मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया ने भी डॉक्टरों के लिए कुछ दिशा-निर्देश जारी किए है जिसमें अगर आपको इमरजेंसी में इलाज की ज़रूरत है तो कोई डॉक्टर इसके लिए आपको मना नहीं कर सकता जब तक फर्स्ट एड देकर मरीज की स्थिति खतरे से बाहर न कर लें.

इसके आलावा इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स के 2012 के संस्करण के मुताबिक किसी भी मरीज के पास उसकी बीमारी को गोपनीय रखने का अधिकार भी हर मरीज के पास है. इसका मतलब ये कि अगर आप नहीं चाहते कि आपके परिवार के दूसरे सदस्य को आपकी बीमारी के बारे में पता चले तो डॉक्टर किसी भी सूरत में आपके परिवार को आपकी बीमारी के बारे में नहीं बताएंगे.

इसी जर्नल में ये भी लिखा गया है कि मरीज़ अपने बीमारी के बारे में सेकेंड ओपिनियन या दूसरे डॉक्टर की सलाह ले सकता है. ऐसी सलाह के लिए कोई भी डॉक्टर किसी भी मरीज़ या परिजन को हतोत्साहित नहीं कर सकता है. लेकिन दोनों डॉक्टरों के सुझाव बिलकुल अलग पाए जाने पर ये मरीज़ और उनके परिजन पर निर्भर है कि वो किन के बताए रास्ते पर चलते हैं. ऐसी सूरत में किसी भी डॉक्टर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है.

इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स में ये भी लिखा गया है कि ये डॉक्टर की जिम्मेदारी है कि हर ऑपरेशन / सर्जरी के पहले मरीज़/ परिजन को संभावित खतरे के बारे में पूरी जानकारी दे और उनसे सहमति पत्र पर दस्तखत भी ले.

किसी भी दूसरे अस्पताल में मरीज़ को किसी भी सूरत में शिफ्ट करने के पहले मरीज़ या उसके परिजन को समय रहते इसकी सूचना मिलनी चाहिए ये मरीज़ का अधिकार है. ऐसी सूरत में मरीज़ की हालात खतरे से बाहर हो, ये सुनिश्चित करना डॉक्टरों का कर्तव्य है ये भी इस जर्नल में कहा गया है.

आखिर में आप चाहें तो मरीज़ से जुड़े इलाज की पूरी केस फाइल अस्पताल से मांग लें. अमूमन अस्पताल खुद ये देते नहीं है इसलिए बहुत जरूरी है कि मरीज़ अस्पताल से छुट्टी के समय ऐसा ज़रूर करें.