April 20, 2024

आखिर कब तक चलेगा ‘ईश्वर-अल्लाह’ के नाम पर बलि का ढोंग

अभी सोशल मीडिया में एक खबर आई, हिंदुस्तान अख़बार के हवाले से, इसके अनुसार एक लड़की ने अपनी आंख ही देवी को चढ़ा दी। इसे हम एक पल में बेवकूफी कह सकते हैं, पर हम में से बड़ी संख्या इसी सोच के चंगुल में हैं, जो सोचते हैं कि बलि देने से ईश्वर अथवा देवी खुश होती है।

बलि जितनी बड़ी होगी, उसका अभीष्ट उतना ही सिद्ध होगा, ऐसी सोच है। जैसे कि मुर्गे की बलि देने से बकरे की बलि देना बड़ा समझा जाता है। बकरे की बलि से भैंस के बच्चे की बलि देना बड़ा समझा जाता है। अगर ऐसा एक समाज सच मानता है, तो एक अंधश्रद्धा में डूबे व्यक्ति के लिए ऐसा सोचना कि अगर अपने शरीर के अंग का बलि दे दिया जाये, तो ईश्वर अथवा देवी तो और भी खुश होगी/ होगी। जिस समाज में इस प्रकार की अंधश्रद्धा और बलि को मान्यता है, वहां किसी भक्त को अपने शरीर के अंग का दान भी उचित लग सकता है।

भारतीय धार्मिक परम्परा में, ईश्वर और देवी को खुश करने के नाम पर बलि देने की लम्बी परम्परा रही है, खास कर हिन्दू धर्म में। कोई अपनी मनचाही सिद्धि के लिए बलि देता है, तो कोई अपने कष्टों को दूर करने। बुद्ध ने इस प्रकार की परम्परा का छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ही विरोध किया था, पर वह आज भी जारी है।

लोगों द्वारा अभीष्ट सिद्धि के लिए, कई मौकों पर बलि देने की प्रथा है, जैसे नवरात्री और दशहरे के वक्त (नवमी के मौके पर)। ऐसी भी मान्यता है कि महाअष्टमी को बकरे की बलि देने से देवी प्रसन्न होती है। आगरा क्षेत्र में काल रात्रि को भी इस प्रकार बलि देने की परम्परा है। केरल के बारे में, आईचौक में भी हाल में एक खबर आई थी जिसमें केरल के तिरुवनंथपुरम के विथुरा गांव के लोगों ने देवी को प्रसन्न करने के लिए पशुओं के रक्त की जगह इंसानों के रक्त से देवी को अभिषेक करने की अपील की गई थी।

कुछ ऐसे भी स्थान या धार्मिक स्थल हैं, जहां निरीह जानवरों की बलि के खून से नालियां बहती हैं। जैसे झारखण्ड के छिन्नमस्तिके मन्दिर में। यहां भी पिछले साल एक युवक ने अपना गला काटकर अपनी बलि चढ़ाई थी। धर्म के मामले में कुछ भी कर गुजरने की यह सोच कोई स्वस्थ परम्परा नहीं है, बल्कि धर्म और ईश्वर को खुश करने के नाम पर शुद्ध अंधश्रद्धा है, जिसकी कीमत निरीह पशुओं को चुकाना पड़ता है और कभी कभी इंसानी जान भी जाती है। अंधश्रद्धा में आकंठ डूबा भारतीय समाज पुरोहित तथा पुजारी के टोटकों और उनके स्वार्थों की गिरफ्त में आकर, तंगी के बावजूद भी, ऐसा करता है।

हिमाचल प्रदेश में स्थित देवी चिंतपूर्णी से संबंधित कथा के अनुसार भक्त माई दास ने अपना सिर काट कर देवी को चढ़ाया था। तब देवी ने प्रकट होकर उन्हें जीवित कर दिया था और अपने भक्तों से वरदान मांगने को कहा था। क्या ऐसी मान्यता और कहानियां जानवरों और इंसानों की बलि को नहीं बढ़ावा देता?

भेड़ बकरी और किसी जीव की बलि देवी-देवता मांगते हों ऐसा कोई प्रमाण किसी के पास नहीं है, ये सिर्फ कहानियां और किंवदंतियां हैं जो मूढ़ और अंधभक्त समाज में बहुत जल्दी लोकप्रिय हो जाती है।

जीवों की बलि चढ़ाने के पीछे कई कारण हैं, लोगों का धर्म के मामले में अँधा होना पहला कारण है, जहाँ धार्मिक किवंदंतियों को भी विज्ञान मानने की होड़ और ज़िद है। कई अन्य कारण है, ईश्वरीय आस्था में लालच का होना। आप बलि देकर या ईश्वर को कुछ चढ़ाके अपनी मनोकामना पूरी करवाने का भ्रम पाल सकते हैं। पुजारियों का झूठी परम्पराओं के लिए अपने स्वार्थ के लिए लोगों को गुमराह करना आदि।

गुवाहाटी के कामख्या मंदिर में इसी किस्म की मान्यता है, यहां बलि देना आम बात है। बचपन में एक कहानी सुनता था कि जो औरतें डायन बनती हैं वो यहां आकर सीखती हैं, और उसके एवज़ में अपने किसी खास की कुर्बानी देकर उसकी कीमत चुकानी पड़ती है। ऐसी कहानियां भारतीय समाज को न केवल डायन प्रथा में विश्वास करने को दुश्प्रेरित करता है, बल्कि बलि प्रथा को भी जारी रखती है।

कामाख्या मंदिर बलि के लिए जितना मशहूर है उतना ही तांत्रिक केंद्र के रूप में भी। यहां जितने आराम से और खुलेआम जानवरों की बलि दी जाती रही है, वह देखकर लगता नहीं कि इसके खिलाफ समाज में कोई चेतना है अथवा कोई कानून ही इसकी फिक्र करता है।

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड की इसी वर्ष की घटना है जिसमें चित्रकूट जिले के पहाड़ी थाना क्षेत्र के लोहदा गांव के चौंसठ जोगिनी देवी मंदिर की घटना हैं, जहां एक युवक ने अपनी गर्दन काट कर खुद की बलि चढ़ा दी थी। वहीं मानिकपुर कस्बे में एक युवक ने अपनी जीभ काट कर देवी को खुश करने की कोशिश की थी।

पंजाब के श्रीकाली माता मंदिर में सप्तमी को (नवरात्र) मां कालरात्रि की पूजा की जाती है। इस दौरान माता को बलि दी जाती है। यहां पर एक गुरु जगतगुरु पंचानंद गिरि ने अपनी उंगली पर कट लगाकर सांकेतिक रूप से बलि की परंपरा को पूरा किया। बाद में 9 कददुओं को काटकर बलि दी गई।

भारतीय समाज इतना डबल स्टैण्डर्ड को मानता है कि उसकी सीमा नहीं। एक तरफ अहिंसा को महत्व दिया जाता है, दूसरी तरफ बलि जैसी प्रथाएं जारी रहती हैं। एक जीव की हत्या से आपकी मनोकामना पूरी होती है, दूसरे जीव की हत्या पाप की श्रेणी में है।

पिछले साल सितम्बर में, झारखण्ड के देवघर में मन्दिर प्रशासन द्वारा बकायदा टेंडर निकाल कर भैंस के बच्चों की बलि के लिए एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट वहां के एक प्रमुख अखबार में निकला। वहीं गाय मांस ले जाने के आरोप में उसी झारखण्ड के रामगढ में अलीमुद्दीन की हत्या कर दी गई। हालांकि अभी उस मामले में इसे न्यायालय ने हत्या माना और 11 लोगों को हत्या के जुर्म में सज़ा दी गई।

इस सम्बन्ध में इस्लाम की बात करें, तो उनका मत है कि पृथ्वी पर सभी चीज़ें इंसानों के उपभोग के लिए बनाई गई हैं। मुहम्मद जैनुल आबिदीन मंसूरी अपनी पुस्तक ‘जीव-हत्या और पशु-बलि इस्लाम की नज़र में लिखते हैं,

“हर जीवधारी (वनस्पति या पशु-पक्षी आदि) को मनुष्य के उपभोग के लिए पैदा किया गया है।”

उनके अनुसार पेड़-पौधे तरकारी को काटना उसी प्रकार से हिंसा है जिस प्रकार मछली, और जानवरों की खाने के लिए हत्या करना। हालांकि यह तर्क आज लोगों को कितना उचित लगेगा, यह अलग बात है। इस्लाम में पशु बलि (कुर्बानी) को हिन्दू धर्म की तरह ही मान्यता प्राप्त है। अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए कई मौकों पर कुर्बानी दी जाती है।

मुहम्मद जैनुल के अनुसार ही –

“इस्लाम में इस्लामी कैलेण्डर के बारहवें मास, जिल-हिज्जा की दसवीं, ग्यारहवीं व बारहवीं तिथि को ‘ईद-उल-अजहा’ त्योहार के अवसर पर बलि दी जाति है जिसे कुर्बानी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त हज को जाने वाले हर व्यक्ति पर भी यह कुर्बानी अनिवार्य है।”

कुर्बानी में ऊंट, भैंस, गाय, बकरे आदि दिए जाते हैं। हालांकि मुफ्ती अरशद कासमी के बताए अनुसार ऐसे ही जानवरों की कुर्बानी दी जानी चाहिए जिसकी कानून हमे इजाज़त देता है। सरकार द्वारा प्रतिबंधित जानवरों की कुर्बानी नहीं देनी चाहिए।

मुफ्ती एजाज़ अरशद कासमी का मानना है कि इस्लाम में कुर्बानी का बहुत महत्व है। अल्लाह द्वारा परीक्षा के नाम पर हज़रत इब्राहिम से अपने इकलौते पुत्र इस्माईल की कुर्बानी की भी बात आती है, जिसके लिए इब्राहिम तैयार हो जाता है। हालांकि कुर्बानी देने के वक्त कहा जाता है कि परीक्षा पूर्ण हुई और उसके बेटे की जगह दुम्बे (भेड़ समान एक पशु) की बलि दे दी जाती है। ऐसी कहानियां भी आम जनों में मान्यता प्राप्त हैं। इसे गर्व और त्याग के लिए कहा और सुनाया जाता है। इससे समझ में आता है कि पशु तो छोड़िये ईश्वर-अल्लाह के नाम पर इंसान के अंग को चढ़ाना अथवा इंसान की बलि/कुर्बानी करने को भी गलत नहीं समझा जाता और आम जनमानस इसपर अंधभक्त की तरह व्यवहार करते हैं।

ऐसी भी खबरे आती है, जहां इंसानों की बलि देने का प्रयास किया गया। इस प्रकार की सोच तथा विश्वास भारतीय समाज को कहां लेकर जाएगी? हमारे जैसे कई युवा इनसे चिंतित हो सकते हैं पर साथ ही हमारे समाज के युवा में भी, आज बलि जैसी कुरीतियों में विश्वास है। यदि किसी का मांस खाना है तो ईश्वर और देवी की नाम पर क्यों, खुद के नाम पर खाओ। ये भ्रम खुद के लिए भी तोड़ो और समाज के लिए भी।

यदि इस ब्रह्माण्ड में कहीं ईश्वर का अस्तित्व हो भी, तो सोचिये कि ईश्वर सिर्फ इंसानों की फिक्र करेगा? क्या वो निरीह जानवरों की चिंता नहीं करता होगा? आप स्वयं विचार करें कि जब आपको ज़रा सी खरोंच आ जाती है तो आप चीख पड़ते हैं, टेटनस की सुई लगवाते हैं और जिस निरीह जीव का आप गला काट देते हैं, उसको कितनी पीड़ा होती होगी?

आप सोचिये, कि क्या आपका ईश्वर इन सब से खुश हो सकता है? अगर औसत दर्जे की भी समझ इनसान को है तो वह गलत, अमानवीय और बेवकूफी भरी इन परम्पराओं को धर्म के नाम पर बढ़ावा नहीं देगा। अतः आप भी अपने आसपास नज़र डालिए और ऐसी अंधी सोच और बलि की कुरीति को विदा कीजिये। यदि आपको मांस खाना ही है, तो खुद के नाम से खाएं, किसी ईश्वर या देवी के नाम पर नहीं।