March 28, 2024

…. तो क्या इसलिए पैडमैन देखना है जरूरी

मध्य प्रदेश का एक गांव. गांव में बिना प्यारेलाल का लक्ष्मीकांत. लक्ष्मीकांत की अभी-अभी शादी हुई है. उसके साथ समस्याएं ये हैं कि वो अनपढ़ है, गरीब है और दिमागदार है. उसकी शादी से ही फ़िल्म खुलती है. निहायती गांव का माहौल. वहां जहां लड़का फेरे लेने के वक़्त मुस्कुरा भी नहीं सकता. लेकिन अच्छी बात ये है कि गांव में रहने के बावजूद लक्ष्मी (लक्ष्मीकांत का प्रचलित नाम) अपनी पत्नी के साथ बैठ के खाना खाता है. उसके साथ उसकी मां और दो बहनें रहती हैं. सबसे बड़ी बहन ब्याह के अपने घर में रहती है. लक्ष्मी की पत्नी को पीरियड्स शुरू होते हैं और उसे बाहर सोना पड़ता है.

लक्ष्मी के पैडमैन बनने की कहानी यहीं से शुरू हो जाती है. उसे ये बात मालूम है कि पीरियड्स बायोलॉजी का मामला है, अपवित्रता का नहीं. उसे ये भी मालूम है कि उसकी पत्नी समेत घर की सभी औरतों को सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करना चाहिए, न कि किसी कपड़े का जो लड़कियों और औरतों को भयानक बीमारियां दे सकता है. वो सैनिटरी नैपकिन लेकर आता है तो उसकी पत्नी गायत्री उसके दाम देखकर उसे वापस करवा देती है. यहीं से पैडमैन की असली लड़ाई शुरू होती है. वो लड़ाई जो कोयम्बटूर के अरुणाचलम मुरुगानाथम की लड़ाई थी.

आर बाल्की की फ़िल्म पैडमैन. पीरियड्स और सैनिटरी नैपकिन पर बनी दूसरी फ़ीचर फ़िल्म. पहली वाली – फुल्लू पर ज़्यादा बात नहीं हुई क्यूंकि उसमें अक्षय कुमार नहीं थे. (अर्थात कोई बड़ा नाम नहीं था.) फुल्लू अभिषेक सक्सेना की बनाई हुई थी जिसमें शरीब हाशमी पैडमैन अर्थात फुल्लू बने हुए थे. खैर. चीनी कम, पा और शमिताभ जैसी फ़िल्में बनाने वाले आर बालाकृष्णन ने एक बेहद ज़रूरी फ़िल्म बनाई है. सारा कमाल फ़िल्म को लिखने वाले का है. वो काम भी स्वयं बाल्की का ही है.

अक्षय कुमार यानी लक्ष्मीकांत और राधिका आप्टे यानी लक्ष्मी की पत्नी गायत्री. अक्षय की ये इस तरह की दूसरी फ़िल्म है. इससे पहले उन्होंने देश में शौचालय की समस्या को लेकर फ़िल्म बनाई थी जो कि इतना ही महत्व रखती है. लेकिन वो फ़िल्म कम और सरकारी नीतियों का प्रचार ज़्यादा मालूम दे रही थी. बहुत बाद में सोनम कपूर भी दिखाई देती हैं जिनका भी फ़िल्म में एक अहम रोल है.

पैडमैन एक बेहद समझदारी से बनाई गई बहुत ही ज़रूरी फ़िल्म है. एक बैलेंस्ड तरीके से इसकी कहानी चलती है और वो कहीं पर भी लक्ष्मीकांत को सुपरहीरो जैसा नहीं महसूस करवाती. बहुत ही सच्ची तरीके से सब कुछ चलता है. बहुत सारे मायनों में ये फ़िल्म बहुत ही ज़्यादा साहसी भी है. जब आप फ़िल्म में अक्षय कुमार के किरदार को भगवान, धर्म और आस्था से जुड़े आडम्बरों का मज़ाक उड़ाते देखेंगे तो आज के समय में धर्म को लेकर चल रही अखंड बेवकूफ़ी के बीच उसे अपनी फ़िल्म में रखने वाले की हिम्मत को सलाम करेंगे. जिस तरह से ये सब फ़िल्म में डाला गया है, बहुत ही स्मार्ट है. अगर ये हॉगवर्ट्स होता तो बाल्की को देख मिस मैकगॉनगल कहतीं, “गरुड़द्वार को दस अंक!”

लक्ष्मीकांत का किरदार मज़ेदार है. वो अनपढ़ है मगर उसे चीज़ों की समझ है. अपने काम में माहिर है. सबसे बड़ी बात ये है कि वो औरतों को भी इंसान ही समझता है. एक मौके पर वो डॉक्टर से अपनी पत्नी के बारे में बात कर रहा होता है और उसके मुंह से गायत्री के बारे में ‘मेरी औरत…’ निकलता है. वो तुरंत ही खुद को ठीक करता है और ‘मेरी बीवी…’ कहता है. और यहीं उसकी सारी पोल-पट्टी खुल जाती है. वो अपनी पत्नी को अपनी जागीर समझ कर उसे अपनी औरत नहीं मानता है. वो उसके आराम की भी सोचता है, उसके सेहत के बारे में भी फिक्रमंद रहता है. और इसलिए वो उसे अपने पीरियड्स के दिनों में उस गंदे कपड़े का इस्तेमाल करने से मना करता है, जो वो हमेशा से करती आई है. वो ऐसी जगह रहता है, जहां लड़कियों के पहली बार पीरियड्स होने पर उन्हें पूजा तो जाता है लेकिन फिर उन्हें अगले 5 दिन घर के बाहर अकेले सोना होता है क्यूंकि वो अपवित्र क़रार दी जाती हैं. अगले 5 दिन एक टेस्ट मैच चलता है. असली टेस्ट मैच में तो बल्लेबाज को पैड्स मिलते हैं लेकिन यहां कोई पैड नहीं. लक्ष्मीकांत की ज़िद है कि वो टेस्ट मैच के सबसे अहम खिलाड़ी को पैड्स पहनाकर ही मानेगा.

पैडमैन फ़िल्म नहीं, एक पाठ है. मॉरल साइंस की किताब का सबसे ज़रूरी पाठ. आज जब देश में सिर्फ 18% महिलाएं ही सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं तो ये फ़िल्म और भी ज़रूरी हो जाती है. इस फ़िल्म में वो करने का दम है जो कभी थ्री इडियट्स ने ‘कैसे पढ़ें और कैसे पढ़ाएं’ की डिबेट को शुरू करके किया था. अख़बार के साथ अक्सर छोटी दुकान वगैरह वाले अपने पर्चे भिजवा देते हैं. सरकार को करना ये चाहिए कि इस फ़िल्म की डीवीडी बनवाकर हर अखबार के बीच में रख घर-घर इसे पहुंचा देना चाहिए. इसके साथ ही वो सैनिटरी नैपकिन्स को टैक्स फ़्री कर दें, तो और भला हो. भगवान (अगर है तो) सरकार को सदबुद्धि दे. स्कूलों में इस फ़िल्म को दिखाया जाना चाहिए. भले ही स्टूडेंट्स को सन्डे को बुलाया जाए लेकिन ऐसा किया जाए. मांएं अपने बेटे-बेटियों के साथ थियेटर में जाकर इसे देखें और अपने पति को भी ले जाएं. लक्ष्मीकांत जिस लड़ाई को लड़ते हुए देखा गया है, वो लड़ाई असल में हर घर में चल रही है. और हम समस्याओं से इतने घिरे हुए हैं कि अब समय आ गया है कि एक बेवजह की समस्या को ये दर्जा ही न दिया जाए कि ये कोई समस्या है. इससे मुंह न ही फेरा जाए. कतई नहीं.