March 29, 2024

आदिवासी लड़कियां अपनी पसंद से चुनती है वर

माउंट आबू : हमारे समाज में आज भी लड़की को अपने पसंद से पति चुनने की आजादी नहीं है। प्रेम विवाह व भाग कर शादी करना तो हेय दृष्टि से देखा जाता है, लेकिन आदिवासी समाज में सदियों से युवतियों को अपने पसंद से पति चुनने की आजादी है और इसे एक परंपरा के रूप में आज भी निभाया जा रहा है। माउंट आबू स्थित नक्की झील पर पीपल पूनम पर आदिवासियों के मेले में स्वयंवर की अनूठी परंपरा निभाई जाती है।

इसमें आदिवासी युवतियां अपने पसंद के लड़के से विवाह करती हैं। इसमें विशेष बात यह है कि युवती अपने पसंद का पति चुनने से पहले अपने पिता से इसकी इजाजत लेती है। इसके बाद युवती के पिता द्वारा चुने गए युवकों में से युवती अपने पसंद का पति चुनती है। युवती को उनमें से अगर कोई युवक पसंद नहीं आता है, तो वह अपनी पसंद के किसी अन्य युवक का हाथ थाम कर वहां से भाग भी सकती है।

लेकिन, ऐसा करने पर गांव में पंचायत बुलाई जाती है और युवती के साथ भागे युवक के घर वालों से दापा (जुर्माना) वसूलकर विवाह के लिए सामाजिक रूप से अनुमति दी जाती है।

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आदिवासियों में स्वयंवर की परंपरा

कहने को आदिवासी समाज आज भी हर क्षेत्र में पिछड़ा है, लेकिन इनकी परंपराएं ऐसी है कि शिक्षित व संपन्न समाज भी इन्हें देखकर अचंभित रह जाता है। हमारे समाज में आज भी लड़की की शादी के लिए परिजन खुद लड़का पसंद करते हैं और इसके बाद लड़की को उससे शादी करनी होती है। लेकिन, आदिवासी समाज के लोग सदियों से स्वयंवर की परंपरा निभाते आ रहे हैं।
इसके लिए युवती का पिता कुछ युवकों को अपनी बेटी के लिए चुनकर मेले में लेकर आता है। इस पर युवती अपने पिता को माला पहनाकर अपने पसंद का पति चुनने के लिए इजाजत लेती है। इस पर पिता उसे स्वयंवर के लिए इजाजत देता है और युवती अपने पसंद के युवक को माला पहनाकर जीवन भर के लिए साथी चुनती है।

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भाग कर भी करते हैं शादी

इस परंपरा में यह भी है कि अगर युवती के पिता द्वारा चुनकर लाए गए युवकों में से कोई भी पसंद नहीं आता हैं, तो युवती मेले में आए अन्य युवक का हाथ थाम कर वहां से भाग सकती है, लेकिन इसके बाद आदिवासी समाज की गांव में पंचायत बैठती है, जिसमें युवक के परिजनों से दापा (जुर्माना) वसूल किया जाता है। इसके लिए समाज उन्हें सामाजिक रूप से विवाह करने की इजाजत देता हैं।

स्वयंवर से जुड़ी है किंवदंती

आदिवासियों की इस परंपरा के पीछे यहां सदियों पहले हुई कुंवारी कन्या और रसिया बालम की प्रेमकथा से जुड़ी है। कुंवारी कन्या और रसिया बालम की प्रेम कथा को लेकर आदिवासी समाज के लोग आज भी यहां स्वयंवर करते हैं और देलवाड़ा मंदिर के पीछे जंगल में बने उनके मंदिर में जाकर पूजा अर्चना करते हैं। इसके बाद वे अपने गांव लौट जाते हैं।

यह है कुंवारी कन्या और रसिया बालम की किंवदंती

सदियों पहले यहां एक अघोरी रसिया बालम को आबू की राजकुमारी कुंवारी कन्या से प्रेम हो गया। रसिया बालम विवाह की अनुमति लेने के लिए राजा के दरबार पहुंचा, जहां रानी ने उसके सामने एक शर्त रखी कि वह अपनी छोटी उंगली के नाखून से एक रात में झील खोद देगा तो, वह अपनी बेटी की शादी उससे कर देगी। इस पर रसिया बालम ने अपने प्रेम को पाने के लिए अपनी तप शक्ति से ब्रह्मकाल तक लगभग झील को खोद दिया था, लेकिन इस दौरान राजकुमारी की मां ने छुपकर मुर्गे की आवाज निकाली।
इस पर रसिया बालम हताश हो गया और जंगल में चला गया, लेकिन काफी देर तक सुबह नहीं होने पर उसे शक हुआ और उसने अपनी शक्तियों से जाना कि मुर्गे की आवाज राजकुमारी की मां ने निकाली थी। इस पर रसिया बालम ने राजकुमारी की मां को श्राप देकर पत्थर का बना दिया। साथ ही इन सब में कुंवारी कन्या की मिलीभगत के शक पर उसे भी पत्थर का बना दिया।

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पितृ तर्पण की भी होती है रस्म

नक्की झील पर पीपली पूनम पर भरने वाले आदिवासियों के मेले में आदिवासी पितृ तर्पण की रस्म भी निभाते हैं। साथ ही कई धार्मिक कार्यक्रम भी होते हैं। इस दौरान व झील में पवित्र स्नान करते हैं। इस दौरान आदिवासी समाज के लोग झील में अपने दिवंगत परिजनों की अस्थियों का विधि विधान से विसर्जन करते हैं।

आने लगे हैं आदिवासी
माउंट आबू में आदिवासियों का पीपली पूनम का मेला शनिवार को धूमधाम से भरेगा। मेले को लेकर शुक्रवार से ही माउंट आबू में आदिवासियों के आने का क्रम शुरू हो गया है। शनिवार को झील पर सवेरे से ही आदिवासी समाज के लोगों के धार्मिक कार्यक्रम शुरू हो जाएंगे, जो शाम तक चलेंगे। इस दौरान आदिवासी अपनी विभिन्न परंपराओं का भी निर्वहन करेंगे।

आदिकाल से निभा रहे हैं परंपरा

यहां के पूर्व सरपंच लीलाराम गरासिया ने बताया कि पीपली पूनम पर आबू में आकर नक्की झील में स्वयंवर की परंपरा निभा रहे हैं। इसके साथ ही झील में पवित्र स्नान व पितृ तर्पण की परंपरा भी आदिकाल से निभा रहे हैं। रसिया बालम और कुंवारी कन्या की प्रेम कहानी को लेकर ही आज भी आदिवासी समाज स्वयंवर की परंपरा निभाता आ रहा है।